Tuesday, 24 May 2016

सद्गुरु की प्रसन्नता

                       
             
                                         सद्गुरु की प्रसन्नता


   संत कबीर जी का यह थोड़ा अध्यात्म का सार है | इसका अर्थ है कि जो सद्गुरु तथा परमात्मा को भिन्न-भिन्न मानते हैं, वे नेत्रहीन की भांति है जो कुछ भी देख नहीं सकते | वे अंधे है | यदि परमात्मा रुष्ट हों जाए, कृपा दृष्टि से वंचित कर दे तो व्यक्ति सद्गुरु की शरण में जाता है, उनसे मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करता है और सद्गुरु करुणा की मूर्ति, एक माँ की भांति उसे स्नेह करते है | किंतु उससे बढ़कर दुर्भाग्यशाली कोई नहीं हों सकता, जिस से सद्गुरु रुष्ट हों जाएं | उसके लिए संसार में, अध्यात्म में फिर कोई ठौर नहीं है, ठिकाना नहीं है, आश्रय नहीं है, उसे परमात्मा की कृपा भी नहीं मिलती |
  अत: अध्यात्म में उन्नति प्राप्त करने के इच्छुक साधक के लिए सर्वप्रथम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है –सद्गुरु की प्रसन्नता | और सद्गुरु उसी शिष्य पर, उसी साधक पर प्रसन्न होते है जो ह्रदय से पवित्र है, जो निर्मल है, जो सदा परोपकार करता है, जो प्राणी मात्र से प्रेम करता है जिसके ह्रदय में परम की प्राप्ति की हो, जो पूर्णत: समर्पित है, कर्मठ है, जो सद्गुरु के आदेश का पालन करता है, जिसमे अहंकार नहीं है, जो सेवा को सर्वोपरि मानता है | सद्गुरु निराकार ईश्वर के साकार स्वरूप है | परमात्मा पिता की तरह कठोर हों सकता है पर सद्गुरु माँ की भांति कोमल होते है | वे शिष्य के विकारों को, अशुद्धियों को दूर कर उसे परमात्मा की गोद में बैठने के योग्य बनाते है | अत: साधक को हर संभव प्रयास करना चाहिए कि सद्गुरु की कृपा दृष्टि उस पर बनी रहें | सद्गुरु के चरण कमलों में पूर्ण श्रद्धा व समर्पण का भाव ही साधक की,शिष्य की संपति है | उसे मन,वचन,कर्म से ऐसी कोई चेष्टा नहीं करनी चाहिए कि सद्गुरु उस पर रुष्ट हों, सद्गुरु की रुष्टता से बढ़कर कोई दुर्भाग्य नहीं हों सकता और सद्गुरु की प्रसन्नता से बढ़कर सौभाग्य नहीं हो सकता | जिस शिष्य पर, साधक पर,सद्गुरु प्रसन्न हो, उसे वे हर क्षण सभांलते है, उसके  डगमगाते कदमों को स्थिरता प्रदान करते है | माया के प्रभाव में आकर जब-जब साधक का मन भ्रमित होता है, तब-तब सद्गुरु उसका हाथ थामकर उसे परमात्मा की राह दिखाते है |
  किंतु जिस साधक ने अपने मन, वचन, कर्म से सद्गुरु को ही रुष्ट कर दिया, उसे अत्यंत कष्ट भोगने पड़ते है, माया का आकर्षण उसे भटकाता रहता है तथा माया की शक्ति उस पर हावी हो जाती है, उसके लिए पतन के रास्ते खुल जाते है |
  एक साधक यदि माया की शक्ति का सामना कर सकता है तो वह केवल सद्गुरु की कृपा से, उनकी शक्ति के बल पर कर सकता है, और कोई उपाय नहीं है | किंतु जिसने जीवन में सद्गुरु की कृपा, उनकी प्रसन्नता नहीं कमाई, उसके लिए माया के बहाव में बह जाना बहुत सरल एवं सहज है |
   जिस प्रकार एक व्यापारी धन कमाकर प्रसन्न होता है, उसके जीवन भर की कमाई, उसकी संपत्ति, उसके धन में उसके प्राण बसे रहते है | संपति खो जाये तो वह निर्धन हों जाता है, कंगाल हो जाता है | उसी प्रकार अध्यात्म में प्रगति के इच्छुक  साधक की कमाई है – सद्गुरु की प्रसन्नता, उनका प्रेम, उनकी कृपा | जो साधक, जो शिष्य भक्ति, साधना, सेवा, प्रेम, पवित्रता व निर्मलता से सद्गुरु की कृपा कमा लेता है, अध्यात्म में वही सबसे बड़ा बलवान है फिर भौतिक सम्पति की दृष्टि से वह भले ही धनहीन हो | सद्गुरु की प्रसन्नता ही उसके जीवन भर की कमाई है जिसे वह साथ लेकर जा सकता है, जो जन्म-जन्मान्तरों बटक उसका साथ देती है |
   किंतु याद रखना सद्गुरु को प्रसन्न करना सरल नहीं है | जब तक मन में छलकपट है, प्रपंच है, विकार है, अपवित्रता है, ईर्ष्या-द्वेष, अहंकार, क्रोध, स्वार्थ, लोभ है- साधक सद्गुरु से कोसो दूर है | हाँ, यदि उसके भीतर मन को पवित्र करने की प्यास है, सच्ची लग्न है, विकारों से मुक्ति की इच्छा है, साधना में प्रगति की इच्छा है तथा उसके मन, वचन, कर्म की चेष्टा में वह प्यास प्रकट होती है तो सद्गुरु उसे दिशा निर्देशन देते है | उस मार्गदर्शन के अनुसार चलना, सद्गुरु की आज्ञा में रहकर उनके हर छोटे से छोटे आदेश का पालन करना – यह भी सरल नहीं है क्योंकि मन का अहंकार साधक को भ्रमित करता है | इसका एकमात्र उपाय है – सद्गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण, नेत्र मूंद कर सद्गुरु के चरणों में समर्पण | और जब इस निष्ठा, श्रद्धा एवं विश्वास में शिष्य के नेत्र मुंद जाते है तो उसके समक्ष दिव्य मार्ग खुल जाते है, दिव्य द्वार खुल जाते है तथा वह परम दिव्य भीतर प्रकट हो उठता है |

  अत: जब भी गुरु के द्वार पर जाए, उनसे प्रार्थना करें, उन्हें प्रणाम करें तो सांसारिक वस्तुओं की अपेक्षा उनसे उनकी कृपा व प्रसन्नता माँगे, उनका आशीर्वाद माँगे- यही कल्याण का मार्ग है |   
   

   

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