नव संकल्प
जब एक शिशु जन्म के साथ
संसार में प्रथम श्वास लेता है तो उस स्थिति में वह माँ के गर्भ से निकल कर एक नए
संसार में प्रवेश करता है | समस्त संसार उसके लिए नया है, अज्ञात है |
माँ की शीतल स्नेह छाया एवं पिता के
संरक्षण में क्रमशः वह नए वातावरण, नई वस्तुओं एवं नए व्यक्तियों से परिचित होता
है | परिवार के सदस्यों के लिए वह शिशु नया है तथा शिशु के लिए समस्त परिवार,
समस्त संसार नया है | अपने शैशव, चंचलता व भोलेपन से सबको आकर्षित करता हुआ वह
शिशु बड़ा होने लगता है |
उस बालक की आँखों को कभी ध्यान से देखना |
उसमे कौतूहल भरा होता है, वह संसार की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक व्यक्ति एवं
प्रत्येक स्थान को जिज्ञासा भरी से
देखता है | वह उसकी जानकारी प्राप्त करना चाहता है, उसके पास प्रश्नों की एक लंबी
सूची होती है | वही सूची इतनी लम्बी होती है होती है कि माता पिता उसके भोलेपन पर
मुग्ध हों जाते है, कुछ प्रश्नों के उत्तर वह स्वयं भी नहीं जानते | किंतु बालक की
जिज्ञासा कम नहीं होती वह सदा और अधिक जानना चाहता है तथा केवल जानना ही नहीं चाहता,
जानकर अत्यंत आनंदित होता है | उसके भीतर जिज्ञासा, कौतूहल, प्रफुल्लता, उत्साह,
स्फूर्ति, उमंग, कूट-कूट कर भरी होती है, वह जीवनी शक्ति से परिपूर्ण होता है,
खिल-खिलाहट से परिपूर्ण होता है, उसके लिए हर दिन एक उत्सव होता है |
किंतु जैसे-जैसे यही
बालक बड़ा होता जाता है, वह जिज्ञासा, वह उमंग, वह प्रसन्नता न जाने कहाँ खो जाती
है | स्थिति यह आ जाती है कि उत्सव पर भी वह प्रसन्न नहीं होता | अब उसे कुछ भी
नया लगता, सब कुछ पुराना लगता है | जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों को पार करते-करते
वह निराशा से भर जाता है, भीतर की जिज्ञासा जैसे मृत हों जाती है | वह जिंदगी को
बस काटने लगता है | बाल्यावस्था में जहाँ वह पशु-पक्षियों, प्राकृतिक मनोरम
दृश्यों, वर्षा की प्रथम फुहार को देखकर खुशी से नृत्य कर उठता था, अब उसे कुछ भी
नहीं आनंदित नहीं करता | जीवन जैसे नीरस हो जाता है |
ऐसी स्थिति में यदि कोई सत्ता, कोई शक्ति,
कोई मार्गदर्शक जीवन की धारा को परिवर्तित कर सकता है तो वे है – “सद्गुरु” |
सद्गुरु वह शक्ति है जो मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाते है | निराश मन में आशा
के फूल खिलाते है, जीवन को नई दिशा प्रदान करते है | मनुष्य के जीवन में पुन:
बाल्यावस्था की वही जिज्ञासा, हास्य, उमंग व उत्साह को जागृत करते है | उसके ह्रदय
में पुन: बालक के मन जैसी पवित्रता एवं भोलेपन को जागृत करते है, पुन: जीवन को
रसपूर्ण बनाते है | सद्गुरु ही शिष्य को ध्यान-साधना, भक्ति, श्रद्धा, जप-तप से युक्त
कर परम सत्ता परमात्मा से जुड़ने का मार्ग बताते है | सद्गुरु की कृपा से ध्यान में
प्रवेश कर भीतर उतरते-उतरते शिष्य का जीवन पूर्णत: परिवर्तित होने लगता है, उसकी
दृष्टि परिवर्तित होने लगती है | ध्यान में वह जितना अग्रसर होता जाता है, उसके
भीतर का आनंद बढ़ता चला जाता है | वही बाल सुलभ मुस्कान, जिज्ञासा व प्रफुल्लता लौट
आती है | अपितु उससे भी आगे अब वह परिपक्व होते-होते जीवन के लक्ष्य के निकट
पहुचने लगता है | बाल्यावस्था तो अबोध अवस्था थी, किंतु सद्गुरु के सानिध्य में
शिष्य बोध प्राप्त करने लगता है | जीवन में पतझड़ के स्थान पर बसंत का आगमन हों
जाता है |
No comments:
Post a Comment