Wednesday, 25 May 2016

DROP THE PAST AND ENJOY THE PRESENT

DROP THE PAST AND ENJOY THE PRESENT

We are the suffers of our own follies and mistakenly, we nurture our follies.  We believe that they are the source of our bliss.  But they prove to be a path of thorns.  We fail to examine them consciously.  Therefore, we suffer immensely.  So our sufferings are the product of our ignorance.  We keep our eyes crossed and that is why, we miss every moment which is divine.
Clinging to past be one of the follies, we commit.  #Meditation Guru #Archna Didi tells us that that particular 'moment' when you entered into this room has past.  Now that moment will never come.  Living in past makes a man suffers miserably.  Living in the past is nothing but a mere illusion.  Since we are not ready to drop our past, we continue to live in illusion. 
We do pretend to live in past but in reality we do not.  Living means to live consciously and carefully.  Dropping the past is not so easy.  It is the most difficult thing in life.  It is because; to drop the past means to drop one’s whole identity and personality.  In effect, it is to drop ourselves.  It is a sort of revolution because with this revolution, the door of transformation opens.
So it is quite significant.  Dropping the past means to get rid of our conditionings, which is difficult and painful.  But those who dare to drop it, only they manage to live.  But those who do not, they live a life at the minimum.  And to live at the minimum is to miss the whole thing, the whole point.  It is only when we live at the optimum of our potential and existence that blossoming  happens.  It is only at the optimum expression of our being, that God arrives and we start feeling the presence of divine.
Lord Buddha, Lord Mahavira, Jesus, Mohammed, Zarathushtra, they all lived at the optimum.  Only a humanoid is incapable of living life to the optimum. 
Each child is born pure and as such is able to feel the presence of the divine.  But as the child grows up, the atmosphere around corrupts the child.  So, it is very important to drop the past first and enjoy the life.  This; after all is the purpose of life.

Tuesday, 24 May 2016

नव संकल्प

                  

                    

                          नव संकल्प


जब एक शिशु जन्म के साथ संसार में प्रथम श्वास लेता है तो उस स्थिति में वह माँ के गर्भ से निकल कर एक नए संसार में प्रवेश करता है | समस्त संसार उसके लिए नया है, अज्ञात है |

      माँ की शीतल स्नेह छाया एवं पिता के संरक्षण में क्रमशः वह नए वातावरण, नई वस्तुओं एवं नए व्यक्तियों से परिचित होता है | परिवार के सदस्यों के लिए वह शिशु नया है तथा शिशु के लिए समस्त परिवार, समस्त संसार नया है | अपने शैशव, चंचलता व भोलेपन से सबको आकर्षित करता हुआ वह शिशु बड़ा होने लगता है |

      उस बालक की आँखों को कभी ध्यान से देखना | उसमे कौतूहल भरा होता है, वह संसार की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक व्यक्ति एवं प्रत्येक स्थान को जिज्ञासा भरी      से देखता है | वह उसकी जानकारी प्राप्त करना चाहता है, उसके पास प्रश्नों की एक लंबी सूची होती है | वही सूची इतनी लम्बी होती है होती है कि माता पिता उसके भोलेपन पर मुग्ध हों जाते है, कुछ प्रश्नों के उत्तर वह स्वयं भी नहीं जानते | किंतु बालक की जिज्ञासा कम नहीं होती वह सदा और अधिक जानना चाहता है तथा केवल जानना ही नहीं चाहता, जानकर अत्यंत आनंदित होता है | उसके भीतर जिज्ञासा, कौतूहल, प्रफुल्लता, उत्साह, स्फूर्ति, उमंग, कूट-कूट कर भरी होती है, वह जीवनी शक्ति से परिपूर्ण होता है, खिल-खिलाहट से परिपूर्ण होता है, उसके लिए हर दिन एक उत्सव होता है |

      किंतु जैसे-जैसे यही बालक बड़ा होता जाता है, वह जिज्ञासा, वह उमंग, वह प्रसन्नता न जाने कहाँ खो जाती है | स्थिति यह आ जाती है कि उत्सव पर भी वह प्रसन्न नहीं होता | अब उसे कुछ भी नया लगता, सब कुछ पुराना लगता है | जीवन के विभिन्न उतार-चढ़ावों को पार करते-करते वह निराशा से भर जाता है, भीतर की जिज्ञासा जैसे मृत हों जाती है | वह जिंदगी को बस काटने लगता है | बाल्यावस्था में जहाँ वह पशु-पक्षियों, प्राकृतिक मनोरम दृश्यों, वर्षा की प्रथम फुहार को देखकर खुशी से नृत्य कर उठता था, अब उसे कुछ भी नहीं आनंदित नहीं करता | जीवन जैसे नीरस हो जाता है |


     ऐसी स्थिति में यदि कोई सत्ता, कोई शक्ति, कोई मार्गदर्शक जीवन की धारा को परिवर्तित कर सकता है तो वे है – “सद्गुरु” | सद्गुरु वह शक्ति है जो मनुष्य को जीवन जीने की कला सिखाते है | निराश मन में आशा के फूल खिलाते है, जीवन को नई दिशा प्रदान करते है | मनुष्य के जीवन में पुन: बाल्यावस्था की वही जिज्ञासा, हास्य, उमंग व उत्साह को जागृत करते है | उसके ह्रदय में पुन: बालक के मन जैसी पवित्रता एवं भोलेपन को जागृत करते है, पुन: जीवन को रसपूर्ण बनाते है | सद्गुरु ही शिष्य को ध्यान-साधना, भक्ति, श्रद्धा, जप-तप से युक्त कर परम सत्ता परमात्मा से जुड़ने का मार्ग बताते है | सद्गुरु की कृपा से ध्यान में प्रवेश कर भीतर उतरते-उतरते शिष्य का जीवन पूर्णत: परिवर्तित होने लगता है, उसकी दृष्टि परिवर्तित होने लगती है | ध्यान में वह जितना अग्रसर होता जाता है, उसके भीतर का आनंद बढ़ता चला जाता है | वही बाल सुलभ मुस्कान, जिज्ञासा व प्रफुल्लता लौट आती है | अपितु उससे भी आगे अब वह परिपक्व होते-होते जीवन के लक्ष्य के निकट पहुचने लगता है | बाल्यावस्था तो अबोध अवस्था थी, किंतु सद्गुरु के सानिध्य में शिष्य बोध प्राप्त करने लगता है | जीवन में पतझड़ के स्थान पर बसंत का आगमन हों जाता है |   




गुरु कृपा के कण

                  


                      गुरु कृपा के कण




     प्रत्येक मनुष्य के जीवन में सद्गुरु व परमात्मा की कृपा से ऐसे क्षण अवश्य आते है जब उसका मन सात्विकता, पवित्रता, शांति, श्रद्धा व भक्ति से पूर्ण होकर परमात्मा में एकाग्र हों जाता है | वे क्षण, यह समय, यह अवसर जीवन का सबसे बड़ा सौभाग्य होता है | सबसे कीमती क्षण होते है वे जब वह सद्गुरु की कृपा की शीतल छाया में होता है, परमात्मा के निकट होता है |

    सद्गुरु के आशीर्वाद से उसे साधना में,ध्यान में, भक्ति में, रस आने लगता है तथा वह प्रगति भि करने लगता है | किंतु इस समय में उसके लिए अत्यंत आवश्यक है कि वह इसके महत्व को समझे, इन क्षणों को सहेजे, उनके मूल्य को समझे | जो आनंद, शांति, प्रेम उसे अनुभव हों, उसे अपने प्रयासों का फल नहीं अपितु सद्गुरु की कृपा का प्रसाद समझे |

    मनुष्य का स्वभाव है कि जीवन में जो कुछ उसे प्राप्त हो जाता है, सहजता से मिल जाता है, वह उसका मूल्य नहीं समझता, उस समय उसकी कद्र नहीं करता | किंतु जब वह उससे वंचित हों जाता है तो उसे बोध होता है कि उसे क्या प्राप्त हुआ था | तब उसे उस प्राप्ति का वास्तविक मूल्य पता चलता है | जीवन की प्रत्येक उपलब्धि एवं प्रत्येक प्राप्ति के लिए यह सत्य है | फिर चाहे वह धन हो, मान-प्रतिष्ठा हों, संबधियों व मित्रों का प्रेम हों अथवा आध्यात्मिक सम्पदा हों | परमात्मा प्रत्येक मनुष्य के जीवन में स्वर्णिम अवसर प्रदान करते है जब उसे सुख प्राप्ति के साधन सरलतापूर्वक प्राप्त होने लगते है |उस समय विशेष में, उस अवसर की महत्ता को समझते हुए जो व्यक्ति उसका पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए उद्यत हो उठता है, वह अपने सौभाग्य को जाग्रत कर लेता है | किंतु अज्ञानवश, अविद्यावश, आलस्यवश जो इन अवसरों को खो देता है, वह भविष्य में केवल और केवल पश्चाताप ही करता रह जाता है | उस समय वह उन अवसरों का मूल्य नहीं समझता किंतु जब अवसर हाथ से चला जाता है तब वह होश में आता है कि क्या खो गया | कितना अमूल्य समय खो गया | इसके लिए आवश्यक है कि मनुष्य प्रतिपल सचेत एवं सतर्क रहें, ईश्वर के प्रति कृतज्ञता से उसका रोम रोम पूर्ण हो तथा ह्रदय में विनम्रता, पवित्रता तथा प्रेम हो | ईश्वर तो सभी को अवसर देते है | जो उसका महत्व समझकर, सदुपयोग करते हुए ईश्वर के प्रति आभार अभिव्यक्त करता है, उसे उतरोत्तर और अधिक अवसर ईश्वर की ओर से प्राप्त होते चले जाते है | इसके विपरीत जो व्यक्ति इन अवसरों का मूल्य नहीं समझता, इसकी कद्र नहीं करता, उसके लिए भविष्य में भी अवसर प्राप्ति का द्वार अवरुद्ध हो जाता है |

    अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि जीवन में जो कुछ हमे प्राप्त हुआ, हम उसकी महत्ता को समझे तथा उसके लिए आभारी हों | ईश्वर से योग्यता के लिए प्रार्थना करे कि हम उसे सभाँल सकें | हमारे भीतर अहंकार न आए |

विशेषकर जब सद्गुरु व परमात्मा की कृपा से साधना व भक्ति में मन स्थिर होने लगे तब तो हमे सर्वाधिक सचेत व सावधान होना चाहिए क्योंकि साधना व श्रेष्ठता का अहंकार व्यक्ति को पतन की ओर ले जाता है | वह अपने बारे में गलत धारणा बना लेता है कि वह बहुत उच्च कोटि का साधक एवं भक्त है | उस समय वह भ्रमित हो जाता है तथा भूल जाता है कि साधना में उसकी स्थिरता उसके प्रयासों का फल नहीं अपितु सद्गुरु की कृपा का फल है | भ्रम की इस अवस्था में व्यक्ति स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ मानने लगता है तथा परिणाम स्वरूप उसका अहंकार बढता चला जाता है |

    साधना की अनुभूतियाँ, भक्ति व पूजा से प्राप्त शांति, प्रेम व आनंद जो उसे सद्गुरु की कृपा से प्राप्त होता है उस अमूल्य सम्पदा के महत्व को वह पहचान नहीं पाता ओर क्रमशः जीवन में आगे बदते-बदते जब माया के प्रभाव में आकर उसकी साधना, भक्ति, जप-तप छूट जाता है तब उसे होश आता है कि उसके मन की वास्तविकता क्या है और जो प्राप्त हुआ था वह कितना ही अमूल्य था | जिसकी उसने कद्र नहीं की किंतु तब तक बहुत देरी हों चुकी होती थी |

     फिर उसे प्रथम चरण से यात्रा प्रारम्भ करनी पड़ती है, साधना की मात्रा, मन को पवित्र करने की यात्रा | और जब तक सद्गुरु करुणावश उसका हाथ थाम कर उसे राह न दिखाएँ, वह भटकता रह जाता है | अत: जीवन में जब भी सद्गुरु की कृपा से साधना में स्थिरता प्राप्त हों, बहुत सतर्क, सचेत व सावधान हों जाना चाहिए |


     यह साधारण नहीं, असाधारण प्राप्ति होती है | उसके मूल्य को समझे, विनम्र व निरहंकार होकर सद्गुरु की शरण में आकर पूर्ण समर्पण कर देना, मात्र यही जीवन की सार्थकता है |     
  

स्वर्णिम अवसर

               
                            
                                                  स्वर्णिम अवसर


कल्पना कीजिये एक नवजात शिशु की जो एक राजकुमार के रूप में भव्य राजमहल में प्रथम श्वास लेता है | पिछले जन्मों के कर्मो एवं पुण्यों के फलस्वरूप इस जीवात्मा को राजप्रसाद में जन्म मिला, राजकुमार के ऐश्वर्य भोग, सुख सुविधाओं का साम्राज्य प्राप्त हुआ | महारानी की गोद, वात्सल्य, प्रेम एवं महाराजा का स्नेह व संरक्षण प्राप्त हुआ |
जन्म के साथ ही दास-दासियों, ऐश्वर्य, रेशमी व बहुमूल्य वस्त्राभूषण, स्वर्ण शैया, भांति-भांति के स्वादिष्ट भोजन व खाद्य पदार्थ – जीवन के सभी सुख प्राप्त हुए | मन में इच्छा होते ही मनचाही वस्तु प्राप्त होती है | संसार का ऐसा कोई सुख नहीं जिससे वंचित होने की संभावना हों | ग्रीष्म ऋतु में शीतल मंद बयार, शीतल खाद्य व पेय पदार्थो की व्यवस्था तथा शीत ऋतु में ऊष्ण आरामदायक वातावरण, मनोरंजन के सभी साधन, धन-धान्य, सुरक्षित भविष्य – सभी कुछ वह भाग्य में लिखा कर लाया है |
किंतु सभी को तो ऐसा सौभाग्य नहीं मिलता | पिछले जन्मों के शुभ कर्मो का ही तो परिणाम होता है जब व्यक्ति को ऐसा भाग्य मिले, ऐसा जीवन मिले |

हम में से बहुत से लोगों को पिछले जन्मों के शुभ कर्मो के फलस्वरूप ऐसा ही सुखद जीवन व अनुकूल परिस्थितियाँ प्राप्त होती है | ऐसी स्थिति में व्यक्ति को ईश्वर के प्रति, सद्गुरु के प्रति अत्यंत कृतज्ञ होकर समय व अवसर का लाभ प्राप्त कर, ध्यान साधना, आध्यात्मिक उन्नति व समाज सेवा के लिए अपनी ऊर्जा व समय का सदुपयोग करना चाहिये | शुभ कर्म करते हुए और अधिक पुण्य अर्जित करने चाहिए ताकि वह आगे आने वाले जन्मों को सुधार सके |
स्मरण रहना चाहिए कि इस जन्म में जो अनुकूलता, जो सुख, जो कृपाएं प्राप्त हुई है, वह पिछले जन्मों की शुभ कमाई का सुफल है | जिस प्रकार अर्जित संपति समय के साथ प्रयोग करते-करते एक दिन समाप्त हों जाती है, उसी प्रकार पिछले जन्मों के शुभ कर्मो की कमाई भी कुछ समय तक साथ देती है, भावी जीवन के लिए और अधिक पुण्य अर्जन की आवश्यकता होती है, और अधिक तपस्या की आवश्यकता होती है |
सद्गुरु की कृपा से जब व्यक्ति को यह बोध हो जाता है तो वह जीवन में मिले सौभाग्य का, ईश्वर की कृपाओं का दुरपयोग नहीं करता, आलस्य, स्वार्थ, अकर्मण्यता, अहंकार के दलदल में नहीं फँसता | वह इस जीवन में भी सौभाग्य का उपयोग करता है तथा सेवा, कर्मठता, परिश्रम, साधना, प्रेम व परोपकार द्वारा भावी जीवन को भी सँवारने का प्रयास करता है |     
इसके विपरीत जो व्यक्ति इसका मूल्य नहीं समझता वह इस जीवन में तो सुख प्राप्त कर लेता है | पिछले जन्मों के शुभ कर्मो के फलस्वरूप उसका जीवन अत्यंत सहज, सुखी, सुख सुविधाओं व ईश्वर की कृपा से पूर्ण होता है | किंतु आलस्य, प्रमाद, अकर्मण्यता, स्वार्थ एवं विषय उपयोग के वशीभूत वह अगले जन्मों के लिए कुछ पुण्य अर्जित नहीं कर पाता | माया का आकर्षण उसे नीचे की ओर खींचता है |
उसकी स्थिति ठीक उसी प्रकार राजकुमार की भांति है जिसे सौभाग्यवश जन्म से राजमहल में मिला किंतु राजकुमार के गौरवशाली पद के दायित्वों व कर्तव्यों के लिए स्वंय को योग्य नहीं बना पाया | ऐश्वर्य-भोग विलास में ही फँसकर वह आलसी प्रमादी हो गया, भाग्य ने उसे सभी अनुकूलताएं प्रदान की  परन्तु कर्म से उसने उसे प्रतिकूलता में परिवर्तित कर दिया |
राजा फिर ऐसे पुत्र को राज्य संचालन का कार्यभार कैसे सौंप सकता है ? राजकुमार से राजा बनने के लिए अपेक्षित गुण तथा योग्यता को अर्जित करना भी तो आवश्यक है, उसके लिए पर्याप्त परिश्रम, अभ्यास,कर्मठता सभी आवश्यक है | निंद्रा, क्षुधा, ऐश्वर्य, विषय उपभोग सभी पर नियत्रंण आवश्यक है | अपनी ऊर्जा एवं समय का दिशा देना आवश्यक होता है, उसमें शत-प्रतिशत प्रयास व लग्न आवश्यक होता है | किंतु राजकुमार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया | परिणाम स्वरूप राजा ने उसे राजगद्दी के योग्य न समझ कर राजपद से वंचित कर दिया |

ऐसे राजकुमार से बढ़कर, दुर्भाग्यशाली संसार में कौन होगा | यह दुर्भाग्यशाली राजकुमार कोई ओर नहीं, हम स्वयं है | ईश्वर ने हमे समस्त सुख उपयोग, ऐश्वर्य, संम्भावनाएं देकर धरती पर भेजा | यदि मनुष्य को जीवन में सद्गुरु का सानिध्य, कृपाएं व मार्गदर्शन प्राप्त हों जाए तथा वह ध्यान साधना के माध्यम से इन सम्भावनाओं एवं क्षमताओं को जागृत कर ले तो चमत्कार घटित हो सकता है |


आवश्यकता है तो मानव देह के रूप में मिले इस अवसर के सदुपयोग की, इस अवसर की दुर्लभता एवं मूल्य को समझने की,सद्गुरु की कृपाएं प्राप्त करने की तथा ध्यान की यात्रा में अग्रसर होने की | अत: जाग जाइये, जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कीजिये, होश में आ जाइए |  

सद्गुरु की प्रसन्नता

                       
             
                                         सद्गुरु की प्रसन्नता


   संत कबीर जी का यह थोड़ा अध्यात्म का सार है | इसका अर्थ है कि जो सद्गुरु तथा परमात्मा को भिन्न-भिन्न मानते हैं, वे नेत्रहीन की भांति है जो कुछ भी देख नहीं सकते | वे अंधे है | यदि परमात्मा रुष्ट हों जाए, कृपा दृष्टि से वंचित कर दे तो व्यक्ति सद्गुरु की शरण में जाता है, उनसे मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करता है और सद्गुरु करुणा की मूर्ति, एक माँ की भांति उसे स्नेह करते है | किंतु उससे बढ़कर दुर्भाग्यशाली कोई नहीं हों सकता, जिस से सद्गुरु रुष्ट हों जाएं | उसके लिए संसार में, अध्यात्म में फिर कोई ठौर नहीं है, ठिकाना नहीं है, आश्रय नहीं है, उसे परमात्मा की कृपा भी नहीं मिलती |
  अत: अध्यात्म में उन्नति प्राप्त करने के इच्छुक साधक के लिए सर्वप्रथम एवं सर्वाधिक महत्वपूर्ण है –सद्गुरु की प्रसन्नता | और सद्गुरु उसी शिष्य पर, उसी साधक पर प्रसन्न होते है जो ह्रदय से पवित्र है, जो निर्मल है, जो सदा परोपकार करता है, जो प्राणी मात्र से प्रेम करता है जिसके ह्रदय में परम की प्राप्ति की हो, जो पूर्णत: समर्पित है, कर्मठ है, जो सद्गुरु के आदेश का पालन करता है, जिसमे अहंकार नहीं है, जो सेवा को सर्वोपरि मानता है | सद्गुरु निराकार ईश्वर के साकार स्वरूप है | परमात्मा पिता की तरह कठोर हों सकता है पर सद्गुरु माँ की भांति कोमल होते है | वे शिष्य के विकारों को, अशुद्धियों को दूर कर उसे परमात्मा की गोद में बैठने के योग्य बनाते है | अत: साधक को हर संभव प्रयास करना चाहिए कि सद्गुरु की कृपा दृष्टि उस पर बनी रहें | सद्गुरु के चरण कमलों में पूर्ण श्रद्धा व समर्पण का भाव ही साधक की,शिष्य की संपति है | उसे मन,वचन,कर्म से ऐसी कोई चेष्टा नहीं करनी चाहिए कि सद्गुरु उस पर रुष्ट हों, सद्गुरु की रुष्टता से बढ़कर कोई दुर्भाग्य नहीं हों सकता और सद्गुरु की प्रसन्नता से बढ़कर सौभाग्य नहीं हो सकता | जिस शिष्य पर, साधक पर,सद्गुरु प्रसन्न हो, उसे वे हर क्षण सभांलते है, उसके  डगमगाते कदमों को स्थिरता प्रदान करते है | माया के प्रभाव में आकर जब-जब साधक का मन भ्रमित होता है, तब-तब सद्गुरु उसका हाथ थामकर उसे परमात्मा की राह दिखाते है |
  किंतु जिस साधक ने अपने मन, वचन, कर्म से सद्गुरु को ही रुष्ट कर दिया, उसे अत्यंत कष्ट भोगने पड़ते है, माया का आकर्षण उसे भटकाता रहता है तथा माया की शक्ति उस पर हावी हो जाती है, उसके लिए पतन के रास्ते खुल जाते है |
  एक साधक यदि माया की शक्ति का सामना कर सकता है तो वह केवल सद्गुरु की कृपा से, उनकी शक्ति के बल पर कर सकता है, और कोई उपाय नहीं है | किंतु जिसने जीवन में सद्गुरु की कृपा, उनकी प्रसन्नता नहीं कमाई, उसके लिए माया के बहाव में बह जाना बहुत सरल एवं सहज है |
   जिस प्रकार एक व्यापारी धन कमाकर प्रसन्न होता है, उसके जीवन भर की कमाई, उसकी संपत्ति, उसके धन में उसके प्राण बसे रहते है | संपति खो जाये तो वह निर्धन हों जाता है, कंगाल हो जाता है | उसी प्रकार अध्यात्म में प्रगति के इच्छुक  साधक की कमाई है – सद्गुरु की प्रसन्नता, उनका प्रेम, उनकी कृपा | जो साधक, जो शिष्य भक्ति, साधना, सेवा, प्रेम, पवित्रता व निर्मलता से सद्गुरु की कृपा कमा लेता है, अध्यात्म में वही सबसे बड़ा बलवान है फिर भौतिक सम्पति की दृष्टि से वह भले ही धनहीन हो | सद्गुरु की प्रसन्नता ही उसके जीवन भर की कमाई है जिसे वह साथ लेकर जा सकता है, जो जन्म-जन्मान्तरों बटक उसका साथ देती है |
   किंतु याद रखना सद्गुरु को प्रसन्न करना सरल नहीं है | जब तक मन में छलकपट है, प्रपंच है, विकार है, अपवित्रता है, ईर्ष्या-द्वेष, अहंकार, क्रोध, स्वार्थ, लोभ है- साधक सद्गुरु से कोसो दूर है | हाँ, यदि उसके भीतर मन को पवित्र करने की प्यास है, सच्ची लग्न है, विकारों से मुक्ति की इच्छा है, साधना में प्रगति की इच्छा है तथा उसके मन, वचन, कर्म की चेष्टा में वह प्यास प्रकट होती है तो सद्गुरु उसे दिशा निर्देशन देते है | उस मार्गदर्शन के अनुसार चलना, सद्गुरु की आज्ञा में रहकर उनके हर छोटे से छोटे आदेश का पालन करना – यह भी सरल नहीं है क्योंकि मन का अहंकार साधक को भ्रमित करता है | इसका एकमात्र उपाय है – सद्गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण, नेत्र मूंद कर सद्गुरु के चरणों में समर्पण | और जब इस निष्ठा, श्रद्धा एवं विश्वास में शिष्य के नेत्र मुंद जाते है तो उसके समक्ष दिव्य मार्ग खुल जाते है, दिव्य द्वार खुल जाते है तथा वह परम दिव्य भीतर प्रकट हो उठता है |

  अत: जब भी गुरु के द्वार पर जाए, उनसे प्रार्थना करें, उन्हें प्रणाम करें तो सांसारिक वस्तुओं की अपेक्षा उनसे उनकी कृपा व प्रसन्नता माँगे, उनका आशीर्वाद माँगे- यही कल्याण का मार्ग है |